Tuesday, May 5, 2009
बेरहम दिल्ली वाले
ईंट और पत्थर के घरों में रहते-रहते और मशीनों के बीच काम करके ऐसा लगता है कि हर इंसान पत्थर हो गया है। ऐसा सोचने की वजह है, हो सकता है कि मैं गलत हूं। लेकिन जब से दिल्ली के दर्शन हुए है यह सोच और पक्की हो गयी है। 61 साल के युवा भारत में बाकी सुविधा को ध्यान रखा जाता है। मसलन सरकार ने आम आदमी के लिए बस की सेवा दी है। जिसमें युवा, बुजुर्ग, स्त्री और पुरूष , यहां तक की निर्जीव सामान के लिए भी जगह है पर उन बच्चों के लिए जगह नहीं होती जो भारत के भविष्य हैं। दिल्ली सरकार की ओर से अपने आम नागरिक को एक जगह से दूसरे जगह जाने के लिए जो बस की सेवा दी है। उसमें सरकारी निगम स्कूलों से निकले बच्चों के लिए कोई जगह नहीं होती। उनके पास बस में सफर करने के लिए पैसे नहीं होते। यह जानकर कंडक्टर उन बच्चों को पहले तो बस में चढ़ने नहीं देते । अगर वो चढ़ गये तो कंडक्टर उन्हें डांट कर बस से उतार देता है। उसके इस काम का विरोध करने के बजाय लोग कंडक्टर का साथ देते हैं। मुङो समझ नहीं आता की इन मासूम बच्चों क ो चिलचिलाती धूप में बस से उतारने में उन्हें जरा भी अजीब नहीं लगता। मुङो जहां तक पता है छोटे बच्चों का बस और ट्रेनों में टिकट नहीं लगता।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
4 comments:
aapne bahut sahi baat uthayi hai ...waakayi sochneey hai
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
मुद्दा ऐसा है कि भावनाएँ कहेंगी कि सही कह रहे हो। किन्तु यदि बिना टिकट यात्रा करने दी गई तो जो बच्चे पैसे दे सकते हैं वे भी नहीं देंगे। सबसे बेहतर तो यह होता कि स्कूल ही घर के पास होते। कृपया वर्ड वैरिफ़िकेशन हटा दीजिए। टिपियाना कठिन हो जाता है।
घुघूती बासूती
लोग रहम करें भी तो कितनी जगहों पर .. सारी व्यवस्था ही गडबड है।
बेरहम तो आप भी हैं
जो नहीं हटाया वर्ड वेरीफिकेशन
वैसे बेरहम में
दिल्ली वाले हम भी हैं
बे हटाएं तो उसमें रहम भी है
ह है हिन्दू, म मुस्लमां भी है
आप पहले करें रहम
वर्ड वेरीफिकेशन हटाएं
हम को महिमायुक्त बनाएं
Post a Comment